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भूमिका

मैं कौन हूँ? क्यों हूँ? यह जगत क्या है? क्यों हैं? जैसा है, वैसा क्यों है?

 

मनुष्यके लिए ऐसे प्रश्नोपर विचार करना एक अवसर भी है और उत्तरदायित्व भी। मैं इन प्रश्नोंका  गहनतासे विचार कर पाऊँ इससे पहलेही मेरा परिचय भगवद्गीतासे हो चुका था। बचपन में पन्द्रहवा अध्याय सुन सुन कर याद किया था और प्रतिदिन सायंकाल घर में उच्चारण होता था। घरके इस वातावरणमें परिवारके सभी सदस्य सम्मिलित थे। हम बच्चोंको श्लोक याद करानेका काम कभी माँ करातीं तो कभी पिताजी। परंतु आरंभ से पूरी गीता पढ़ने का साहस युवावस्था में हुआ। और समझने का प्रयास, या यूँ कहिए प्रयास का दुस्साहस, ऑस्ट्रेलिया आकर बसने के बाद हुआ।

 

इस प्रकार माँ और बड़ी बुआ के पास बैठकर याद किए हुए श्लोकोंका अर्थ और अधिक गहनता से समझने का अवसर ऑस्ट्रेलियामें स्थित वेदान्त सेंटर के आदरणीय स्वामी श्रीधरानंदजी के व्याख्यान सुनकर मिला। मैं और विनीता, और साथ में छोटी ईशा – हर रविवार उनका कहा सुनने जाते और अपनी क्षमतानुसार अनुसरण का प्रयास करते। अब इस यात्रा में मेरे दो नये साथी थे - पत्नी और बेटी।

 

इसी दौरान आचार्य विनोबा भावेजीकी गीताई, जो मराठीमें रचित है, पढ़नेका अवसर हुआ और साथ साथ अठारह श्लोकोंका एक मराठीमें ‘गीता सार’ भी मिला जिसके लेखक का नाम मैं आज तक ढूँढ रहा हूँ!

 

उसके बाद जो हुआ उसका स्पष्टीकरण मेरे लिए कठिन है। एक सांसारिक दायित्वोंमें व्यस्त गृहस्थ, जिसने ना कभी आध्यात्मिक विषयों पर गहनता से विचार किया था, और ना ही भाषाओं का औपचारिक अध्ययन, ना जाने क्यों सोचने लगा – ‘यदि संस्कृत के श्लोकोंका इतनी सुंदरतासे मराठी में छंदोबद्ध अनुवाद हो सकता है, तो भला हिन्दी में क्यों नहीं?’ इतना ही नहीं, यूँ भी सोचने लगा, ‘क्यों ना मैं प्रयत्न करूँ!’ अब इसे कृष्णलीला नहीं कहें तो क्या कहें? (यहाँ एक बातकी स्वीकारोक्ति करनी होगी कि यद्यपि उस समय मुझे कोई और ऐसी कृति नहीं मिली और लगा यह कार्य पहली बार हो रहा है, परंतु बाद में मुझे पता लगा कि श्री हरिवंशराय बच्चनजीने इसी प्रकार हिन्दी कविताके रूपमे एक रचना लिखी है।)

 

बस फिर क्या था – अनुवाद के माध्यमसे विषयके निकट आने का प्रकरण शुरू हो गया। मैं लिखते-सोचते अन्य बातों की सुध बुध खोने लगा। और तो और, इस कार्य में लगे रहनेका एक ‘लोभ’ सा अनुभव होने लगा। बड़ी दुविधा थी! एक ओर इस काम के प्रति इतना लगाव, कुछ घमंड भी, और दूसरी ओर निष्काम कर्म तथा विनय भाव का संदेश….अपनेको सँभालनेका रास्ता भी कविता ने ही दिखाया।

 

 

कर्म लोभ उपकरण अलुब्धि

मोहित मन है द्वंद्व विरंजन 
मधु फल पंथ कठिन है स्वंजन

त्यज आरंभ अहंकृति भंजन 
धर धीरज जब ग्रंथ है गीता

पद ईशा है पंथ विनीता
​गुरु माता है जनक विधाता

कवि धाता है तुली निरंजन

 

ऐसी मनःस्थितिमें, श्रीधरानंद स्वामीजीके  व्याख्यान सुनते हुए, चिन्मयानन्द स्वामीजीके व्याख्यानोपर आधारित किताबें पढ़ते हुए, गोरखपुरी गीता पढ़ते हुए, आचार्य विनोबाजीकी गीताई पढ़ते हुए, यह कार्य आगे बढ़ा। इस कार्यमें माँ से परामर्श का आधार था और विनीताके पिताजीसे प्ररूपणका। समय था सन् २००५ ई. । आगेके १९ साल यह कविता बंद दराज़ में रखी रही। आज परिवारके सदस्य तथा अन्य शुभेच्छकोंके प्रोत्साहनसे उसे आप तक ला रहा हूँ। आशा करता हूँ हिन्दी भाषाके प्रेमी तथा वाचकगण इसे पढ़कर भागवद्गीतके सनातन संदेशका रस हिन्दी कविताके माध्यमसे और अधिक मिठासके साथ अनुभव कर पायेंगे। 

 

इस भूमिकाके आरंभमें कुछ प्रश्न उठाये थे। ‘मैं कौन हूँ?’ का एक उत्तर है, ‘तत्त्वमसि’। शायद एक और उत्तर हो सकता है, ‘मैं एक कलम हूँ’। सौभाग्यवश इस कलमसे किसीने भगवद्गीताका हिंदीमें छंदोबद्ध अनुवाद किया है। कलम उठानेवाला कवि कौन है? आइये, अर्जुनके माध्यमसे श्रीयोगेश्वरसे पूछें।

आभार –

 

  • माँ, श्रीमती आशा देवधर

  • ​पिता, श्री सुरेश देवधर 

  • बड़ी बुआ, स्व. श्रीमती सुमति सोहनी

  • श्वसुर, श्री हरिप्रकाश मित्तल

  • पत्नी, श्रीमती विनीता मित्तल देवधर

निरंजन देवधर  

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