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​गीता सार 

कुरुक्षेत्रकी धर्मभूमि पर,

युध्दकामनासे हो प्रेरित

एकत्रित कौरव पाण्डवजन,

वर्णन यह संजयका विस्तृत 

युध्दभूमिमें देखे अर्जुन,

कुलविनाशके सारे लक्षण

क्षणमें भूल धर्म क्षत्रीका,

छोड़े धनुष्य अति व्याकुल मन

हरि देखे अर्जुन उद्वेजित,

गीता वेदसार बतलाया

आत्मानन्द अनंतक निश्चल,

देह वस्त्र केवल कहलाया

हर्ष-शोक द्वन्द्वोंसे हट कर,

दृढ योधन दुर्योधनसे कर

ज्ञानदीपसे अनंत  उज्ज्वल,

है पथ कर्म भक्तिका निश्चल

ज्ञान मार्ग दिखलाया,

उच्च बताया,

कर्मयोगसे गिरिधर

तब क्यों भीषण भंजन,

वंश निकंदन,

पूछे पार्थ धनुर्धर

कर्मफलों का संचय,

छोड़ धनंजय,

तब ज्ञानी कहलाना

ब्रह्म समर्पण करना,

बंधन हरना,

मुझमें पूर्ण समाना

जब-जब धर्मविनाशी संकट,

मृत्युलोक आतंकित करता

भवतारी अवतारी बनकर,

भक्तोंके मैं सब दुख हरता

अपना धर्मकर्म कर प्रतिदिन,

मेरे चरणोंमें अर्पित चल

ऐसा कर्म न बांधे फलसे,

जलसे पत्र कमलका अविकल

कर्मयोग  संन्यास  मुकुंदा,

दोनों पथ जब आप दिखाएँ  

कहे पार्थ दुविधा में पड़कर,

कौन मार्ग अति सुगम बताएँ

अहंकार छोड़े कार्यक्षम,

स्थिरमति  संन्यासी कहलाए 

कर्मयोग अर्पित कर मुझमें,

सरल पंथ शिर वही चढाये

संन्यासी योगी कहलाता,

फलासक्ति बिन कर्मठ करता

निर्द्वंद्वी समता आचरता,

उचित प्रकार ब्रह्म को ध्याता

कठिन निरोधन चंचल चितका,

दृढ अभ्यासी वशमें लाता

जन्म संस्कार अनेक संचित,

योगी मुझमें पूर्ण समाता

ज्ञान अमित बतलाया,

दुर्दम माया,

विरला ही हर पाया

श्रद्धालु जहाँ आया,

ब्रह्म समाया,

भवसागर तर पाया

मैं हूँ भान भानुमें,

रस मैं जल में,

सुगंध वसुन्धरा में

जीवन मैं जीवों में,

तप तपसी में,

बुद्धि बुद्धिजीवी में

7

अक्षर अविनाशी अव्यक्ता,

ब्रह्म सच्चिदानंद विधाता

युग सहस्र आरम्भ प्रलय का,

गमनागमन प्रक्रमण करता

ध्यान स्मरण मुझमें रख पल-पल,

पुनर्जन्म व्याधि सदा हर चल

वेद यज्ञ पारंगत योगी,

पहुँचे परम धाम को निश्चल

8

यज्ञ मंत्र मैं आहुति ज्वाला,

मात पिता धाता जगपाला

अन्य देवता जो जन यजते,

मुझ समीप आ मुझको भजते

पत्र पुष्प फल जल इत्यादिक,

करते भक्ति भाव से अर्पण

यत्न तपस् सब कर्म भक्त के,

हर्षित हो करता मैं स्वंजन

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समता तुष्टि दान व अहिंसा,

क्षमा शान्ति दम शम सत्य तथा

यश अयश व सुखदुःख भयाभय,

मैं विभूति हूँ प्रकट सर्वथा

सामवेद वेदों में, मरुतों 

में मरीचि, रुद्रों में शंकर

नदियों में निर्मल गंगा मैं,

पाण्डुपुत्र मैं पार्थ-धनुर्धर

१०

विनती सुन मधुसूदन,

समर्थ लोचन,

यदि हो दैवी दर्शन

विकट रुप हरि धारण,

भुज संचारण,

अग्निमुखी शम हारण

सूर्य सहस्र प्रभामय,

नभ आभामय,

सब ब्रह्माण्ड दृश्यमय 

दृश भयभीत धनंजय,

हरि करुणामय,

प्रसम सुखमय शान्तिमय

११

सगुण भक्ति है अथवा निर्गुण,

श्रेष्ठ मार्ग पूछे जब अर्जुन,

बहुत योग कहते हरि परन्तु,

भक्ति योग अति सरल सर्वगुण

उद्वेजक ना ही उद्वेजित,

करुणामय निद्वेष सर्वसम

सम मानित अथवा अपमानित,

भक्त सर्वथा मेरा प्रियतम

१२

क्षेत्र क्षेत्रज्ञ ज्ञान व ज्ञाता,

ज्ञान परम अज्ञान तराता

प्रकृति पुरुष जगतका उद्गम,

आदि अन्त मध्यम कहलाता

जगत विनाशी मैं अविनाशी,

जो रहस्य जाने वह ज्ञाता

केवल प्रकृति करे कर्म सब,

पुरुष न करता ना करवाता

१३

ज्ञान उच्चतम सब ज्ञानों में,

ज्ञाता तुरत मोक्षको पाता

प्रकृति क्षेत्र बीज मैं अर्जुन,

सर्वभूत उत्पत्ति विधाता

सत्त्वरजस्तम त्रिगुणी बंधन,

माया जाल स्वभाव लुभाता

उत्तम मध्यम अधम अनुसार,

पुनर्जन्म नामांकित जाता

१४

संचारित संसार वृक्ष है,

पत्र वेद अश्वत्थ बताया

गुण-विषयों से प्रबलित-पुष्टित,

शस्त्र काट नि:संगति पाया

श्रोत्र चक्षु रस घ्राण स्पर्श मन,

अधिष्ठान विषयोंमें संजन

क्षर-अक्षरमें देखे प्रभुको,

द्वन्द्वविमुख कृत-कृत्य बताया

१५

दया क्षमा धृति शौच अहिंसा,

अभय सत्य दम शान्ति सुलक्षण

दम्भ दर्प अभिमान अहंकृति,

क्रोध लोभ मद काम कुलक्षण

लक्षण दिव्य विपरीत आसुर,

वृत्ति असुर बांधे जन्मान्तर

अधर्म छोड़े धर्म सदा धर,

शास्त्र विधियुक्त कर्म सदा कर

१६

देव सत्त्वमय निराकांक्ष शुचि,

सुपात्र के प्रति उत्तम सात्त्विक

यक्ष तीक्ष्ण फलहेतु दम्भमय,

उपकारी मध्यम व राजसिक

प्रेत पर्युषित श्रद्धाविरहित

उत्सादनी अपात्र तामसिक

श्रद्धा अन्न यज्ञ तप व दान,

उत्तम धर ऊँ तत् सत् प्रेरित

१७

निष्क्रियता सर्वदा असंभव,

योधन त्याग स्वधर्म असंभव

हितकर सदुपदेश यह सुनकर,

सद्विचार इच्छानुसार कर

मोह नष्ट संदेह नष्ट है,

वचन मान्य हरि माधव गिरिधर

विजय भूति ध्रुव नीति जहाँ पर,

हरि योगेश्वर पार्थ धनुर्धर

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