
श्री भगवान ने कहा,
निर्भयता हो पवित्र मन हो
ज्ञानयोग में निश्चल मन हो
दान हो यज्ञ भी हो दम हो
हो तप स्वाध्याय सरल मन हो
१
सत्य अहिंसा त्याग शान्ति हो
क्रोध नही हो सज्जनता हो
दयादृष्टि व अलोलुप्ता हो
और सदा स्थिरता मृदुता हो
३
तेज क्षमा हो धृति व शौच हो द्रो
ह व अभिमान नही धरता
दिव्य सम्पदा जो अपनाता
हे भारत यह गुण आचरता
३
दंभ दर्प क्रोध अहंता भी
अज्ञान तथा निष्ठुरता भी
आसुरी संपदा जो पाता
हे पार्थ यही गुण अपनाता
४
दिव्य संपदा मोक्ष दिलाये
आसुर बंधनमय कहलाये
शोक ना करो पाण्डव तुम हो
दिव्य संपदा से जन्माये
५
दो प्रकार के जीव जगत में
दिव्य तथा आसुर कहलाते
विस्तृत वर्णन दिव्य का सुना
पार्थ अब सुनो आसुर बातें
७
कहाँ कर्म है उचित कहाँ है
निष्क्रियता आसुर ना जाने
सत्य नही उनमें न शौच है
सदाचार भी ना पहचाने
७
कहें नहीं कुछ परमसत्य है
निरीश्वर जगत निराधार है
आपस में संभोग से बना
जगत काम कारण अपार है
९
अल्पबुद्धि नष्टात्मा सारे
यही धारणा हैं अपनाते
जगत शत्रु हैं जगत विनाशक
उग्र कर्म करते करवाते
९
दुर्भर कामातुर रहते वे
दम्भी घमण्डी अहंकारी
मोहित धरें दुराग्रह भारी
कर्म करें दुर्निश्चयकारी
१०
अपार चिन्ताग्रस्त रहें वे
मरणोपरान्त मुक्ति न पाते
काम-तृप्ति ही परम लक्ष्य है
यही धारणा हैं अपनाते
११
बान्धें सैंकड़ों कामनाएँ
रहते कामातुर क्रोधातुर
काम-भोग के लिये अधर्मी
यत्न करें धन-संग्रह आतुर
१२
मैंने आज यही सब पाया
अब वह इच्छा पूर्ण करूँगा
यह सब है मेरा मैं आगे
यह सारा धन प्राप्त करूँगा
१३
वही शत्रु मैने था मारा
दूजा आगे नष्ट करूँगा
मैं ईश्वर मैं भोगी मैं बल-
-वान सिद्ध मैं सुखी बनूँगा
१४
धन्वन्तों में हूँ जन्माया
सामना न कोई कर पाया
यज्ञक मैं मोदक मैं दानी
इस प्रकार मोहित अज्ञानी
१५
चित्त भ्रमित है सर्व दिशा में
मोह-जाल में है फँस जाता
काम-भोग आसक्त रहे मन
अधम नर्क में है गिर जाता
१६
आत्मप्रशंसक अड़ियल उनको
धन-सम्मान करे मन मोहित
नाम मात्र का यज्ञ करें वे
विधि के विपरीत तथा दम्भित
१७
शक्ति-दर्प से अहंकार से
काम-क्रोध से जीवन भरते
अपने में और दूसरों में
द्वेष मुझी से विद्विष करते
१८
इन्ही द्वॆष करने वालों को
ऐसे जग के क्रूर जनों को
अशुभ आसुरी योनि में सदा
फैंकूँ मैं इन अधम जनों को
१९
इस प्रकार आसुरी योनि में
मूढ जन्मजन्मान्तर जाते
हे कौन्तेय मुझे ना पाते
और भी अधम गति को पाते
२०
तीन द्वार हैं नरक के यहाँ
आत्मा नष्ट करें यह तीनों
काम क्रोध और लोभ जानो
त्यागो इसीलिये यह तीनों
२१
हे कौन्तेय यही तीनों हैं
तमस-द्वार जो विमुक्ति पाता
मार्ग कल्याण का अपनाता
है वही परम गति को जाता
२२
शास्त्रविधि युक्त कर्म त्याग कर
कर्म काममय जो अपनाता
ना वह सिद्धि प्राप्त कर पाता
न ही सुख ना परम गति पाता
२३
शास्त्र इसलिये प्रमाण मानो
कार्याकार्य इन्ही से जानो
शास्त्रोक्त जो सभी वह जानो
शास्त्रानुसार करना मानो
२४