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अध्याय १५

श्री भगवान ने कहा,

ऊपर मूल व नीचे शाखा
वृक्ष सदा अश्वत्थ बताया
वेद पत्र हैं इसके मानो
जो जाने वेदज्ञ बताया


डालियाँ सर्वत्र प्रसरित
विष्य अंकुर त्रिगुण पुष्टित
कर्मक्रम सारा जगत में
मूल भी सर्वत्र प्रसरित


दिख न पाए रूप इसका
नीव आदि न अंत इसका
शस्त्र-निःसंगता लेकर
काट कर दृढ मूल इसका


ढूँड लो वह पद जहाँ से
लौट कर कोई न आता
शरण लो उस पुरुष की प्र-
-वृत्ति आदिम जो जगाता


मान-मोह व संग विरहित
आत्मनिष्ठ व काम विरहित
नित्य-धाम वही पहुँचते
रहें सुख-दुख द्वन्द्व विरहित


सूर्य-चन्द्र ना ही पावक भी
है उसे प्रकाशित कर पाता
परमधाम है मेरा कोई
जाकर नही लौटकर आता


अंश सनातन मेरा जग में
नीव रूप है धारण करता
बसे यही प्रकृति में पाचों
इंद्रियाँ व मन कर्षण करता


इन्हें समेटे देहों से उस
प्रकार ईश्वर आता जाता
गंध समेटे सब पुष्पों से
है समीर ज्यों आता जाता


श्रोत्र चक्षु रस ध्राण स्पर्श भी
सभी का अधिष्ठापन करता
अधिष्ठान मन का भी इनके
विषयों का वह सेवन करता


यही गुणयुक्त विषय भोगता
धरे यही देह छोड़ जाता
देख सके ना विमूढ इसको
ज्ञान चक्षु से है दिख पाता
१०

सिद्धि-यत्न करते जो योगी
उन्हें यह स्वयं में दिख जाता
अकृति बुद्धिहीन यत्न भी
करें उन्हें यह ना दिख पाता
११

उज्जवल करे जगत जो सारे
तेज सूर्य में पाया जाता
जानो मेरा तेज है वहाँ
चन्द्र-अग्नि में पाया जाता
१२

धरा व्याप्त है मुझसे अपनी
शक्ति से सभी जगती धरता
अमृतमय चन्द्रमा बनूँ औ-
-षधियों को पुष्टित मैं करता
१३

वैश्वानर का रूप ग्रहण कर
जीव-देह में मैं बस जाता
मैं ही प्राण-अपान समाता
चार भाँति के अन्न पचाता
१४

हृदय में सबके बसूँ मैं
ज्ञान स्मृति हूँ न भी हूँ मैं
वेद से ही वेद्य हूँ मैं
वेदकवि वेदज्ञ हूँ मैं
१५

दो पुरुष जगत में क्षर पहला
है अक्षर दूसरा बताया
सारे जीवों को क्षर मानो
तथा अचल अक्षर कहलाया
१६

और एक है पुरुष यहाँ जो
उत्तम परमात्मा कहलाता
वही सर्वव्यापी अव्यय है
सर्वलोक ईश्वर है धाता
१७

क्षर-अक्षर दोनों से उत्तम
मैं इनसे पार चला जाऊँ
इसीलिये वेदों-लोकों में
मैं ही पुरुषोत्तम कहलाऊँ
१८

मैं पुरुषोत्तम हूँ ऐसा जो
निर्मोहित मुझे जान पाया
सर्वभाव से मुझे पूजता
हे भारत सर्वज्ञ बताया
१९

शास्त्र गुह्यतम ऐसा मैने
हे अनघ यहाँ तुम्हें बताया
हे भारत जो इसे जानता
बुद्धिमान कृत-कृत्य बताया
२०

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