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अध्याय १३

अर्जुन ने कहा,

प्रकृति क्या है व पुरुष क्या है
क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ यहाँ क्या है
हे केशव जानना चाहता
हूँ मैं ज्ञान व ज्ञेय क्या है


श्री भगवान ने कहा,

हे कौन्तेय शरीर यही है
समझो यहाँ क्षेत्र कहलाया
इसी क्षेत्र को जो जाने है
वही यहाँ क्षेत्रज्ञ बताया


सारे क्षेत्रों में हे भारत
क्षेत्रज्ञ मुझे ही पहचानो
क्षेत्र तथा क्षेत्रज्ञ का ज्ञान
यही ज्ञान है यह भी मानो


क्षेत्र क्या है तथा कैसा है
क्या विकार हैं तुम्हें बताऊँ
और क्षेत्रज्ञ की क्या महिमा
संक्षिप्त तुम्हें सभी सुनाऊँ


मंत्रों छन्दों में बहुतेरे
वंदन करते ऋषिगण सारे
निश्चित तर्कपूर्ण शब्दों में
स्पष्ट करें ब्रह्मसूत्र सारे


पंचतत्त्व भी अहंकार भी
बुद्धि तथा अव्यक्त मूल भी
और दस इंद्रियाँ भी मन भी
उनके पाँचों अर्थ विषय भी


कामना द्वेष सुख-दुख धृति भी
शरीर-संघात चेतना भी
इनसे यही क्षेत्र है दर्षित
संक्षिप्त विकार-सहित वर्णित


अहिंसा तथा विनम्रता भी
क्षमा व आर्जव अदंभता भी
गुरु-उपासना पवित्रता भी
आत्म संयम तथा स्थिरता भी


चित्त रहे निरहंकार सदा
हो वैराग्य सभी विषयों से
जन्म मृत्यु से जरा-रोग से
निरासक्ति इन दुख-दोषों से


अभिष्वंग आसक्ति नही हो
संतति और घर-गृहस्थी से
नित्य रहे समचित्तता जहाँ
इष्ट अथवा अनिष्ट सभी से
१०

निश्चल सुदृढ चित्त रहे जब
मेरी सदा अनन्य भक्ति में
मात्र एकान्त में रुचु हो जब
अरुचि रहे जब जन-संगति में
११

स्थिर मन सदैव आत्मज्ञान में
दृष्टि सर्वदा तत्त्वज्ञान में
ज्ञान यही सब है कहलाया
विपरीत अज्ञान कहलाया
१२

जानने योग्य तुम्हें बताऊँ
जो जाने वह अमरज पाया
परम ब्रह्म है अनादि जाने
सदसत् पारंगत कहलाया
१३

हस्त व पैर सर्वत्र जिसके
सर्वतः शिर व मुख व नयन हैं
श्रोत्र भी हैं सर्वत्र जिसके
जगव्यापक सर्व आवरण हैं
१४

विभा इन्द्रिय-गुणों से दिखती
तद्यपि नैरिन्द्रियर्य धरता
रहता निःस्पर्ष सभी धरता
निर्गुण हो गुण अनुभव करता
१५

जो कुछ जगत में अचर वाचर
है वह सबके अन्दर-बाहर
अपनी सूक्ष्मता से अगोचर
दूर भी निकट भी है अक्षर
१६

है अखण्ड यद्यपि अविभाजित
जीवों में ज्यों रहे विभाजित
जीवों का है धर्ता-भर्ता
है भक्ष्क है प्रभवन कर्ता
१७

ज्योतिष है ज्योतिषमंतों का
परम तमस् भी कहलाता है
ज्ञान ज्ञेय भी ज्ञानगम्य भी
हृदय में सभी के बसता है
१८

क्षेत्र भी ज्ञान भी व ज्ञेय भी
इस प्रकार संक्षिप्त बताया
मेरा भक्त यही सब जाने
है मुझमें पूर्णतः समाया
१९

प्रकृति और पुरुष की जोड़ी
इन दोनों को अनादि जानो
सर्व गुणों और विकारों का
प्रकृति से उद्भव है जानो
२०

कार्य व कारण के प्रकरण में
प्रकृति कारणमात्र बताया
सुख-दुख अनुभव के प्रकरण में
मात्र पुरुष कारण कहलाया
२१

प्रकृति में ही पुरुष बसे प्र-
-कृतिज गुणों का अनुभव करता
कारण यही गुण-आसक्ति है
धारण जन्म शुभाशुभ करता
२२

परम पुरुष परमात्मा बसता
शरीर में साक्षी कहलाया
वही महेश्रर अनुमतिदाता
भर्ता तथा भोक्ता बताया
२३

प्रकृति-पुरुष गुणों का संग्रह
जान जो इसी प्रकार पाता
कैसी भी स्थिति में हो रहता
परन्तु पुनः नही जन्माता
२४

स्वयं ही स्वयं में आत्मा को
ध्यान-मार्ग से कुछ पहचानें
योग सांख्य का कुछ अपनाएं
कर्मयोग से कुछ पहचानें
२५

और अन्य जो नही जानते
अपितु दूसरों से सुन पाते
श्रद्धा रखते सुना मानते
मृत्युलोक वे भी तर जाते
२६

हे भरतर्षभ चराचर सभी
जगती में जो आए मानो
क्षेत्र तथा क्षेत्रज्ञ के मिलन
से ही सब जन्माए मानो
२७

एक समान सभी जीवों में
रहता है परमेश्रर धाता
विनाशियों में है अविनाशी
ऐसा जो जाने वह ज्ञाता
२८

रहे सर्वतः समदर्शी जो
प्रभु को देख सर्वतः पाता
स्वतः स्वयं से हिंसा ना
करता वही परम गति को पाता
२९

केवल प्रकृति करे कर्म सब
आत्मा सदैव रहे अकर्ता
भेद यह समझकर जो देखे
ज्ञानी दृष्टिमान कहलाता
३०

जब जीवों की अनेकता में
तत्त्वतः एकता जो भाता
देखे सभी एक से विस्तृत
है तभी वही ब्रह्म समाता
३१

अहो कौन्तेय परमात्मा जो
अनादि अव्यय निर्गुण होता
शरीर में है बसता परन्तु
ना करता ना मैला होता
३२

जैसे आकाश सर्वव्यापी
सूक्ष्म रहे ना मैला होता
वैसे ही इस देह में बसा
देही भी ना मैला होता
३३

सर्वलोक जैसे हे भारत
सूर्य अकेला उज्वल करता
सर्वक्षेत्र भी उसी भाँतिसे
एक क्षेत्रज्ञ उज्वल करता
३४

क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ-भेद जो
देख ज्ञान-लोचन से पाता
मुक्त हुआ होने-घटने से
ज्ञानी परमधाम को पाता
३५

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