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अध्याय १२

अर्जुनने कहा,

सतत युक्त हैं सगुण भक्तिमें
भक्त जो सदा तुम्हें पूजते
वा अक्षर व अव्यक्त पूजें
उनमें उत्तम कौन बूझते


श्रीभगवानने कहा,

मुझमें मन आसक्त सर्वदा
नित्य युक्त जो मुझे पूजते
भक्त श्रद्धापरायण ऐसे
योगी उत्तम युक्त बूझते


अपितु जो अनिर्देश्य पूजते
भक्त अव्यक्त अक्षर भजते
अचल अचिंत्य स्थिर सर्वव्यापी
सर्वकालिक अटल ध्रुव भजते


सर्व इंद्रियाँ वशमें करते
सर्वत्र समत्व बुद्धि धरते
मुझमें वे भी पूर्ण समाते
जगती हित-चिन्तक हित करते


भक्त जहाँ अव्यक्त पूजते
क्लेश-बोझ उनके अति भारी
अक्षर-लक्ष्य पंथ अति दुर्गम
जब पथिक हो जडदेहधारी


किन्तु जो भक्त सब कर्मोंको
केवल मुझमें अर्पण करते
अनन्य मन से भक्ति योग से
ध्यान निरन्तर मुझमें धरते


ऐसे भक्त लीन जो मुझमें
उन्हें मैं शीघ्र ही अपनाता
उनका मैं बनकर उद्धारक
मृत्युलोक भवसिन्धु तराता


सदा संलग्न मुझमें रख मन
बुद्धि सदा मुझमें रखलो तुम
इस प्रकार दृढ सफल भक्त बन
निःसंशय मुझमें बस लो तुम


य़द्यपि चित्त संलग्न मुझमें
रख सकना अति दुर्लभ मानो
दृढ अभ्यास-योगसे मुझको
एक-चित्त अपनाना जानो


दृढ अभ्यास-योग के लिये
यदि असमर्थ स्वयम् को पाओ
अर्पित कर कर्मों को मुझमें
निश्चित सुलभ सिद्धि को पाओ
१०

और कहीं कर्मों का अर्पण
भी बाधाओँ से आचित हो
अनासक्त सब त्याग कर्मफल
चित्त नियत मुझमें आश्रित हो
११

मात्र अभ्याससे ज्ञान भला
भला ज्ञानसे ध्यान जान तू
ध्यान से भला कर्मफल-त्याग
त्यागसे मिले शांति मान तू
१२

द्वेष-रहित सब जीवों के प्रति
भाव मित्रता का करुणामय
अहंकार ममताको छोड़े
क्षमा-भाव सुख-दुख समतामय
१३

चित्त-नियत दृढ-निश्चय जिसका
सदा संतुष्ट योगी उत्तम
मुझमें अर्पित हो बुद्धि व मन
ऐसा भक्त मुझे है प्रियतम
१४


उद्वेजित जो ना जगसे जग
को जो ना उद्वेजित करता
हर्षोद्वेग व भय-ईर्ष्यासे
मुक्त भक्त मुझको अति भाता
१५

अपेक्षा और व्यथासे रहित
दक्ष व निर्मल निःस्पृह रहता
सर्वारम्भ त्याग जो पाता
वही भक्त मुझको अति भाता
१६

हर्ष-शोक द्वन्दों से विरहित
इच्छा-द्वेष रहित रह पाता
शुभाशुभ द्विधा से पारंगत
भक्त सर्वदा मुझको भाता
१७

शत्रु-मित्र दोनों से समता
मानापमान देखे प्रतिसम
शीत-उष्ण सुख-दुःख आदि भी
सदा निःसंग देखे प्रतिसम
१८

अल्पसंतुष्ट मौनी रहता
निन्दा और प्रशंसा प्रतिसम
स्थिरमति किन्तु स्थल-निरासक्त
भक्त मुझे ऐसा है प्रियतम
१९

अमृत अटल धर्म यह सुनकर
भक्त इसे करते जो पालन
श्रद्धावन्त रहें जो मत्पर
भक्त मुझे ऐसे अति प्रियतम
२०

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