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अध्याय १०

श्री भगवान ने कहा,

पुनः सुनो हे महाबाहु तुम
परम वचन मैं तुम्हें सुनाऊँ
उत्सुक होकर सुनते हो तुम
मैं हित-चिंतक तुम्हें बताऊँ


देव-महर्षि नहीं पहचाने
मेरा मूल स्रोत ना जाने
मूल मैं देव-महर्षियों का
मूल मैं सर्वशः इन सब का


मैं अजन्मा अनादि विधाता
सर्व-लोक ईश्वर मैं धाता
मर्त्य मुझे ऐसा जो जाने
मुक्ति सर्व पापों से पाता


बुद्धि ज्ञान निर्मोहता तथा
क्षमा सत्य निग्रह शान्ति तथा
होना भी और न होना भी
सुख व दुःख भी भय व अभय भी


समता संतोष अहिंसा भी
तप व दान भी यश व अयश भी
भाव जगत के हैं बहुतेरे
सारे प्रकट रुप हैं मेरे


पूर्वकाल के कुमार चारों
सप्त महाऋषि मुनि भी सारे
जन्माए मेरे ही मन से
इन्ही से लोक निर्मित सारे


विभूति-योग यही है मेरे
तत्व से इसे जो पहचाने
निःसंशय निष्कम्प योग में
सदा युक्त वह रहना जाने


मैं हूँ सबका प्रभवन-कर्ता
मुझसे सभी प्रवर्तन करता
बुद्ध मुझे इस भाँति बूझते
भक्ति-भाव से मुझे पूजते


मुझी से चित्त-प्राण लगते
आपस में विज्ञान बढाते
सदैव मेरा कीर्तन करते
संतुष्ट व मन-प्रसन्न रहते


ऐसे सतत युक्त जो रहते
प्रेम भक्ति से मुझे पूजते
उन्हें मैं भक्तियोग दिलाता
मुझ समीप आ मुझे बूझते
१०

मैं करुणामय उन भक्तों के
तन-मन-हृदय में बसा जाता
ज्ञानदीप से उज्वल करता
अज्ञान-अंधकार हटाता
११

अर्जुन ने कहा,

तुम ही परम ब्रह्म हो तुम ही
परम धाम पावन भी तुम हो
तुम्ही दिव्य तुम आदिदेव अज
विभु शाश्वत और पुरुष तुम हो
१२

जो बात देव-ऋषि नारद भी
असित व्यास देवल भी कहते
थे सारे ऋषिगण जो कहते
अब तुम हो आज वही कहते
१३

हे केशव जो कुछ कहते हो
मान्य है मुझे सच है सारा
हे भगवन ना देव न दानव
जान सके हैं रूप तुम्हारा
१४

आप तुम्हीं आप को आप से
जान सके हो हे भूतेश्वर
हे पुरुषोत्तम हे जगदीश्वर
अहो भूतभावन देवेश्वर
१५

दैवी विभूतियाँ तुम अपनी
निःशेष सभी मुझे सुनाओ
जिन विभूतियों से तुम सारी
जगती को व्यापक अपनाओ
१६

हे योगी कैसे सदैव मैं
मनन करूँ जो तुमको पाऊँ
कौन-कौन से रूप सोचकर
हे भगवन मैं तुमको ध्याऊँ
१७

अपने विभूति-योग जनार्दन
सविस्तार तुम पुनः बताओ
अमृत वचन तुम्हारे सुनकर
तृप्त नहीं हूँ पुनः सुनाओ
१९

श्री भगवान ने कहा,

ठीक है कुरुक्षेष्ठ अब तुम्हें
अपनी दिव्य विभूति सुनाऊँ
अनन्त है विस्तार इन्ही का
मात्र मुख्य कुछ तुम्हें बताऊँ
१९

सब जीवों के हृदय में बसूँ
सब का आत्मरूप ही मैं हूँ
हे गुडाकेश सब जीवों का
आदि-अन्त-मध्यम भी मैं हूँ
२०

आदित्यों में विष्णु हूँ सूर्य-
-अंशुमान् ज्योतिषमन्तों में
शशि हूँ सारे नक्षत्रों में
मरीचि हूँ सारे मरुतों में
२१

सामवेद मैं हूँ वेदों में
इन्द्रदेव हूँ मैं देवों में
सर्व इन्द्रियों में मन मैं हूँ
और चेतना मैं जीवों में
२२

यक्ष राक्षसों में कुबेर हूँ
मैं हूँ शिव-शंकर रुद्रों में
सारे वसुओं में पावक हूँ
मैं हूँ मेरु सभी शिखरों में
२३

हे पार्थ मुझे पुरोहितों में
सबका मुख्य ब्रहस्पति जानो
सेनानियों में स्कन्द हूँ मैं
सरोवरों में सागर मानो
२४

शब्दों में ओंकार मैं रहा
महर्षियों में भृगु मैं जानो
यज्ञों में जपयज्ञ मैं रहा
स्थावरों में हिमालय जानो
२५

पीपल हूँ सारे वृक्षों में
नारद सभी देवर्षियों में
चित्ररथ सभी गंधर्वों में
हूँ मैं कपिल सिद्ध मुनियों में
२६

उच्चैश्रवा सभी अश्वों में
अमृत से हूँ जन्मा जानो
ऐरावत हूँ गजराजों में
सभी नरों में भूपति जानो
२७

कामधेनु मैं हूँ गायों में
वज्र रहा सारे शस्त्रों में
कामदेव मैं प्रजन हेतु से
वासुकि मैं सारे सर्पों में
२८

मैं अनंत सारे नागों में
वरुण मैं रहा जलदेवों में
अर्यमा रहा मैं पितरों में
मैं यम सभी नियंताओं में
२९

मैं हूँ काल सब मापकों में
हूँ प्रह्लाद सभी दैत्यों में
मैं हूँ सिंहराज पशुओं में
हूँ मैं खगराज पक्षिओं में
३०

पवन रहा सर्व पावकों में
रामचन्द्र शस्त्रधारियों में
में हूँ मकर सब मछलियों में
मैं निर्मल गंगा नदियों में
३१

हे अर्जुन मैं आदि-अंत हूँ
मध्यम भी मैं हूँ कृतियों में
विद्या में आत्मा की विद्या
तर्क मैं वाद विवादियों में
३२

सर्व अक्षरों में अकार हूँ
द्वन्द्व समासों में कहलाता
अक्षय अनंत काल मैं रहा
और विश्वचालक मैं धाता
३३

मृत्यु मैं सर्व-संहारी हूँ
भविष्य का उद्भावक मैं हूँ
नारी में वाणी मेधा श्री
कीर्तिक्षमा धृति स्मृति भी में हूँ
३४

बृहत्साम सामों में हूँ मैं
हूँ मैं गायत्री छंदों में
मार्गशीर्ष मासों में हूँ मैं
हूँ मैं ऋतु-वसंत ऋतुओं में
३५

मैं हूँ धूत छल-कपटियों का
मैं हूँ तेज तेजस्वियों का
सत्व सात्विकों में हूँ जय हूँ
निश्चयकारी में निश्चय हूँ
३६

मैं हूँ धनन्जय पाणडवों में
वासुदेव सर्व वृष्णियों में
और व्यास हूँ मैं मुनियों में
कवि उशना हूँ मैं कवियों में
३७

मैं हूँ दण्ड सब दण्डकों में
हूँ मैं सुनीति जिगीषियों में
मैं ही हूँ मौन रहस्यों में
हूँ मैं ही ज्ञान ज्ञानियों में
३८

हे अर्जुन तुम जानो केवल
मैं हूँ बीज सभी जगती का
बिन मेरे अस्तित्व नही है
चर वा अचर सभी जगती का
३९

अहो परंतप अंत नही है
मेरी दैवी विभूतियोंका
मैंने केवल संक्षिप्त कहा
वर्णन मेरी विभूतियोंका
४०

जो कुछ जग में वैभवशाली
है विभूतिमय व शक्तिशाली
ऐसा जग में जो कुछ है बस
जानो है मेरा ही तेजस
४१

हे अर्जुन और क्या सुनोगे
क्या क्या जाऊँ तुम्हें सुनाता
केवल एक अंश से मेरे
सर्व जगत का हूँ मैं धाता
४२

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