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अध्याय ८

अर्जुन ने कहा,

क्या है ब्रह्म अहो पुरुषोत्तम
अध्यात्म व कर्म किसे कहते
अधिभूत क्या बताया तुमने
पूछूँ अधिदैव किसे कहते


हे मधुसूदन इसी देह में
अधियज्ञ कौन कैसे जाने
मनुष्य जब हो संयमी तुम्हें
अन्तकाल वह कैसे जाने


श्री भगवान ने कहा,

ब्रह्म है परम अक्षर उसका
स्वभाव है अध्यात्म जान लो
सारी जगती का उद्भावक
सृष्टी-व्यापार कर्म जान लो


अधिभूत है विनाशी प्रकृति
अधिदैवत जीव-तत्व जानो
हे श्रेष्ठ देहधारी केवल
मैं हूँ यहाँ अदियज्ञ मानो


अन्तकाल भी मात्र मुझे जो
स्मरण करे देह त्याग जाता
निःसंशय ही आगे मेरे
अस्तित्व में वही मिल जाता


जो जो जैसा भाव स्मरण कर
अन्तःकाल देह त्याग जाता
अहो कौन्तेय उसी भाव में
रहकर अस्तित्व वही पाता


इसी लिये सर्वदा मुझे तुम
स्मरते हुए युद्ध में जाओ
चित्त-बुद्धि जब अर्पित मुझमें
मात्र मुझे निःसंशय पाओ


अभ्यासी मन ध्यान लगाए
और कहीं जब ध्यान न जाए
परम पुरुष का ध्यान जुटाए
अहो पार्थ दैवी गति पाए


जो भजे सर्वज्ञ अविगत
सूक्ष्मतम सर्वानुशासक
सर्वधाता अति पुरातन
सूर्यवर्णी तमसनाशक


मृत्युक्षण में अचल मन से
भक्ति से दृढ योग बल से
प्राण रख भौंमध्य मिलता
पूर्णतः दैवी पुरुष से
१०

वेद-विद् ने कहा अक्षर
संयमी ने जिसे पाया
हेतु माने ब्रह्मचारी
वही पद मैंने बताया
११

द्वार सभी जो करे नियन्त्रित
मन भी रखता अंतरवेशित
प्राण रखे मस्तिष्क में जहाँ
योगधारणा में सुस्थापित
१२

ओम् नाम का है ब्रह्माक्षर
उच्चारण कर मुझे स्मरण कर
जो यह देह त्याग कर जाता
योगी वही परम गति पाता
१३

अनन्य चित्त सतत जो मेरा
नित्य स्मरण ही करता जाए
अहो पार्थ जो नित्य-युक्त है
योगी सहज ही मुझे पाए
१४

सिद्ध महात्मा मुझे प्राप्त कर
शीघ्र ही परम गति को पाता
अशाश्वत पुनर्जन्म दुखालय
लौटकर कभी भी ना आता
१५

हे अर्जुन हैं ब्रह्मलोक तक
सभी लोक यह पुनरावर्तक
नही जन्मता पुनः कौन्तेय
एक बार पहुँचे जो मुझतक
१६

ब्रह्मदेव का दिन हो जैसे
सहस्र युग का जो पहचाने
रात भी रही सहस्र युग की
मात्र वही दिन व रात जाने
१७

उसी अव्यक्त स्रोत से व्यक्त
जगत दिनोदय से जन्माता
रात हुई अव्यक्त वही गति
पुनः जगत सब घुल मिल जाता
१९

जगत जीव कुछ ना कर पाते
ऐसे पुनः-पुनः जन्माते
हे पार्थ रात में घुल जाते
दिनोदय में पुनः जन्माते
१९

उच्च इसी अव्यक्त तत्व से
दूजा अव्यक्त कहा जाता
नष्ट हो अपितु सारी जगती
नहीं सनातन विनाश पाता
२०

अक्षर अव्यक्त श्रेष्ठ सबसे
उच्च सनातन गति कहलाया
प्राप्त जिसे वह कभी न लौटे
परम धाम मेरा कहलाया
२१

हे पार्थ जो अनन्य भक्त है
उसको परम पुरुष मिल पाता
सारी जगती जिससे बसती
वही सर्वव्यापी कहलाता
२२

हे भरतर्षभ तुम्हें सुनाऊँ
कब कैसे यह योगी जाता
पुनः लौट कर कब ना आता
कब कैसे पुनः लौट आता
२३

पावक ज्योति दिवस जो जाता
तथा शुक्लार्ध जो अपनाता
षण्मास उत्तरायण जाता ब्र
ह्म समझता ब्रह्म समाता
२४

धूआँ रात तथा शुक्लपक्षी
षण्मास दक्षिणायन जाता
वही चन्द्रलोक पहुँच जाता
योगी वहाँ से लौट आता
२५

शुक्ल-कृष्ण दोनों जगती के
पंथ सनातन यह कहलाये
एक से गया कभी न लौटे
और पंथ दूजा लौटाए
२६

अहो पार्थ दो पथ हैं योगी
कदाचित नही मोहित मानो
इसी लिये हे अर्जुन तुम भी
योग में युक्त रहना जानो
२७

वेद यज्ञ व दान तप के
पुण्य फल से पार जाता
वही योगी सर्वज्ञाता
परम आदिम धाम पाता
२८

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