top of page

अध्याय ६

श्री भगवान ने कहा,

सदा नियत कर्तव्य करे जो
अनाश्रित कर्मफल से रहता
संन्यासी भी योगी भी वह
ना जो निष्क्रिय निराग्नि रहता


संन्यास जिसे कहते हैं सब
योग वही है पाण्डव जानो
बिना संकल्प छोड़े कोई
योगी नही बने यह मानो


योग धाम मुनि चढता है जब
उसका कर्म उपकरण कहते
योगारूढ पहुँचता है जब
तब निवृत्ति उपकरण कहते


अनासक्त इन्द्रिय-विषयों से
कर्म-विरक्त जभी रह पाए
छोड़ दिये हों संकल्प सभी
योगारूढ वही कहलाये


आत्मोद्धार करो आत्मा से
ना हो आत्मपतन आत्मा से
आत्मबन्धु है केवल आत्मा
करे वैर आत्मा आत्मा से


स्वतः स्वयं को जीत लिया जब
आत्मा आत्मबन्धु बन जाती
ना हो आत्मा आत्मवश जहां
आत्मा आत्मशत्रु बन जाती


जितात्मा रहे प्रशांत देखे
है परमात्मा सदा समाहित
शीत उष्ण सुख दुख सम देखे
सम मानित अथवा अपमानित


तृप्त रहे विज्ञान-ज्ञान से
अविचल इन्द्रिय संयम धरता
योगी युक्त वही कहलाता
लोष्ट अश्म कान्चन सम धरता


सुहृद मित्र वैरी उदासीन
मध्यम द्वेषी बान्धन-जन में
धर्मात्मा अथवा पापी हो
ज्ञानी धरता समता मन में


योगी रखे मनस्थिति अविचल
रहता सदैव आत्मसंतुलित
रहे अकेला आत्मसंयमित
आशा-विमुक्त परिग्रह रहित
१०

ना अति ऊंचा ना अति नीचा
स्वच्छ स्थान में रहे प्रतिष्ठित
चर्म-वस्त्र-तृण का हो आसन
सुस्थिर आसन में सुस्थापित
११

एकाग्र वहाँ मन को करता
इंद्रियाँ चित्त संयमित करे
बैठे योगाभ्यास करे वह
आत्मशुद्धि केवल हेतु धरे
१२

शरीर शिर ग्रीवा सीधे कर
तथा उन्हें स्थिर और अचल धर
दृष्टि नासिका पर अपनी धर
नही तनिक देखे इधर-उधर
१३

प्रशान्त मन में निर्भयता धर
ब्रह्मचर्य के व्रत में तत्पर
संयम मन में विचार मेरा
युक्त संतुलित बैठे मत्पर
१४

इसी प्रकार सदैव संतुलित
चित्त संयमित करता जाए
प्रशान्त मन मुझमें संस्थापित
योगी निर्वाण परम पाए
१५

योग न अत्याहारी अथवा
अनशन करने वाला साधे
हे अर्जुन ना निद्रा प्रेमी
ना ही सदा जागता साधे
१६

जब आहार विहार युक्त हो
कर्ता युक्त यतन अपनाए
युक्त रहे निद्रा व जागरण
वही योग से दुख हर पाए
१७

जहाँ संयमित चित्त सर्वदा
स्वयं को स्वयं में बहलाता
सभी वासनाओंसे विमुक्त
मनुष्य वहाँ युक्त कहलाता
१८

जिस प्रकार निर्वात स्थान में
दीपक ना कभी टिमटिमाता
उपमा वही संयमित योगी
आत्मयोग में चित्त टिकाता
१९

चित्त सुशान्त असंचर धरता
योग द्वारा निरोधन करता
अन्तरभूत अन्तरात्मा में
संतुष्टि जहां आत्मा धरता
२०

पार सर्व इन्द्रियों से जहाँ
बुद्धिग्राह्य सुख अनन्त भाता
जहाँ तत्त्वतः तत्त्व जानकर
आत्मस्वरूप सदा स्थिर भाता
२१

जहाँ पहुँचकर जिसे जानकर
और कहीं कुछ भी ना भाता
कोई यद्यपि दुख हो भीषण
विचलित उसे नहीं कर पाता
२२

उत्साह तथा स्थिरता धरता
योग दृढ निश्चयी आचरता
दुःख से जो वियोग दिलाता
जानो वही योग कहलाता
२३

वासना बनी संकल्पों से
सर्व पूर्णतः जड़ से हरता
सब इंद्रियाँ सब दिशाओं से
संयमित सदा मन से धरता
२४

धीरे धीरे शान्त मनस्थिति बु
द्धि सदा धैर्यशील धरता
आत्मसंलग्न मन को करता
विचार व सर्व चिन्ता हरता
२५

जहाँ जहाँ से विचलित होकर
चंचल मन ज्यों अस्थिर बहता
उन्ही सब कारणों को रोधे
केवल आत्मसंयमित रहता
२६

ऐसा मन से प्रशान्त योगी
जहाँ रजस् पर संयम करता
पाप-विचार विमुक्त ब्रह्ममय
अत्युत्तम सुख अनुभव करता
२७

योगाभ्यास सदा अपनाता
योगी पाप-मुक्त रह पाता
शीघ्र सरल परमधाम जाता
सदा अनंत अटल सुख भाता
२८

ब्रह्मात्मा में देखे जगती
जगती में रहे ब्रह्मदर्शी
योगाभ्यासी युक्त मनस्थिति
योगात्मा रहता समदर्शी
२९

सब कुछ केवल मुझमें देखे
और सर्वत्र मुझको भाता
मैं उससे ना होता विरहित
विरहित नहीं उसे में पाता
३०

देखे मुझे सर्व जगती में
एकनिष्ठ योगी जो भजता
जैसा भी जहाँ भी रहे वह
सदैव केवल मुझमें बसता
३१

एक समान है सर्वव्यापी
आत्मा में समता जो भाता
सम देखे सुख-दुख हे अर्जुन
योगी वह उत्तम कहलाता
३२

अर्जुन ने कहा,

हे मधुसूदन सांख्ययोग जो
आपने मुझे यहाँ सिखाया
चंचल मन मेरा है अक्षम
स्थिरता देख नहीं मैं पाया
३३

अहो कृष्ण है अति चंचल मन
बलशाली है इसका मंथन
इसका निरोध मानूँ दुर्गम
वायु-तुल्य करता है विचलन
३४

श्री भगवान ने कहा,

हे महाबाहु है चंचल मन
निःसंशय है कठिन निरोधन
अहो कौन्तेय दृढ अभ्यासी
दृढ वैरागी करे संयमन
३५

असंयत के लिये अति दुर्लभ
योग प्राप्ति ऐसा मैं मानू
उचित यत्न करता जो संयत
प्राप्त कर सके यह भी जानू
३६

अर्जुन ने कहा,

श्रद्धालु यत्न करके भी जो
चित्त संयमित ना रख पाता
योग सिद्ध जो ना बन पाता
अहो कृष्ण गत कैसी पाता
३७

हे महाबाहु छिन्न मेघ ज्यों
क्या वह दोनों पंथ गँवाता
क्या वह विमूढ निराधार हो
ब्रह्ममार्ग से भटका जाता
३८

अहो कृष्ण मेरा यह संशय
ऐसा करो दूर हो जाए
और अन्य कोई भी ऐसा
संशय दूर नही कर पाये
३९

श्री भगवान ने कहा,

हे पार्थ नही इस जगती में
ना परलोक में नाश पाता
ऐसा सदा कल्याणकारी
कदापि ना दुर्गति को जाता
४०

प्राप्त करे वह पुण्यलोक जब
दीर्घकाल रहता सुजनों में
योग से पतित पुनः जन्मता
सन्तति शुचि श्रीमन्त जनों में
४१

योगसिद्ध के कुल में अथवा
योगनिपुण घर में जन्मा्ता
धन्य वही इस जगती में जो
ऐसा दुर्लभ अवसर पाता
४२

पूर्व जन्म के संस्कार पुनः
लेकर सुबुद्धि-समता पाता
हे कुरुनन्दन सिद्धि के लिये
और अधिक प्रयत्न अपनाता
४३

उसी पूर्व अभ्यास के विवश
प्रकृति विवश जन्म वह पाता
केवल जिज्ञासु भी योग का
शब्द-ब्रह्म पारंगति पाता
४४

मन से भरसख प्रयत्न करता
योगी पाप-विमोचन पाता
जन्म संसकार अनेक संचित
योगी वही परमगति पाता
४५

तपस्वियों से योगी उत्तम
उत्तम ज्ञानी से भी पाओ
कर्मठ से उत्तम हे अर्जुन
इसी लिये योगी बन जाओ
४६

सर्व योगियों में भी कोई
अन्तरभूत मुझी को पाता
श्रद्धालु सदा मुझको भजता
वह उत्तम योगी कहलाता
४७

bottom of page