
श्री भगवान ने कहा,
अव्यय अटल योग यह मैंने
सुर्य को सर्वप्रथम बताया
सूर्य ने वही मनु को आगे
मनु ने इक्ष्वाकु को सुनाया
१
ऐसी परम्परा थी जिससे
ज्ञान राजऋषि करते प्रसृत
काल ओघ में अहो परंतप
वही ज्ञान अब होता विस्मृत
२
वही पुरातन अनंत अविचल
योग आज मैं तुम्हें सिखाऊँ
भक्त सखे हो मेरे तुमको
अद्भुत गुप्त रहस्य दिखाऊँ
३
अर्जुन ने कहा,
जन्म तुम्हारा हुआ बाद में
पहले सूर्यदेव जन्माए
कैसे मैं अब समझूं तुमने
आदिकाल यह योग सुनाए
४
श्री भगवान ने कहा,
हे अर्जुन हैं जन्म अनेकों
व्यतीत मेरे और तुम्हारे
अहो परन्तप मुझे स्मरण है
विस्मृत हैं सब तुम्हें तुम्हारे
५
अव्यय अज आत्मा होकर भी
होकर भी जगदीश सनातन
अपनी प्रकृति माया से मैं
जन्माता यह सत्य पुरातन
६
जब-जब जगती में हे भारत
धर्म-विनाश आक्रमण करता
अधर्म जब-जब प्रसरण करता
तब मैं अवतार ग्रहण करता
७
रक्षण हेतु साधु-सज्जन के
दुर्जन-दुष्ट विनाष करूँ मैं
संस्थापन कर धर्म-नीति का
युग-युग में अवतार धरूँ मैं
८
जन्म-कर्म मेरे हैं दैवी
यही तत्वतः जाने ज्ञाता
देह त्याग कर पुनर्जन्म ना
लेता मुझमें पूर्ण समाता
९
मुक्त क्रोध से संगति-भय से
मुझमें जहाँ शरणमय होते
ज्ञान अग्नि से विशुद्ध होकर
कई तपस्वी मन्मय होते
१०
जो जैसा मुझको उपासता
उसी भांति मैं उसको भाता
अहो पार्थ हैं पथ बहुतेरे
प्रत्येक परमपद पहुँचाता
११
कर्मफलों की इच्छा से जो
विषय देवताओं को भजते
सिद्धि-पूर्ति को शीघ्र पहुँचते
मनुष्यलोक शिखर पर सजते
१२
चार वर्ण मैंने आयोजे
गुण-कर्म विभाजन जो धरता
ऐसा आयोजक होकर भी
मैं हूँ अव्यय तथा अकर्ता
१३
अलिप्त हूँ मैं इन कर्मों से
ना ही फल इच्छित कर्मों से
इस प्रकार जो मुझको जाने
बँधता नही वह कर्मों से
१४
जान यही हैं करते आये
पूर्वकाल से मोक्षार्थी सब
पूर्वज जैसे करते आये
तुम भी अपने कर्म करो अब
१५
क्या हैं कर्म अकर्म कौन से
मोहित है ज्ञानी भी इससे
कर्म तुम्हें अब मैं बतलाऊँ
मोक्ष तुम्ही पाओगे जिससे
१६
समझो योग्य समझने के है
समझो भेद विकर्म-कर्म का
अकर्म क्या है यह भी समझो
गूढ़ गहन है पंथ कर्म का
१७
देख कर्म में अकर्म योगी
अकर्म में पहचान कर्म को
बुद्धिमान कहलाये ऐसा
कर्ता करे सुजान कर्म को
१९
जिसके सब आरम्भ संकल्प
काम-दोष से विमुक्त रहते
ज्ञानाग्नि से कर्म शुद्ध हो
वह पंडित बुद्ध-युक्त कहते
१९
निरासक्त जो कर्म-फलों से
निराधार नित्य तृप्ति धरता
यद्यपि व्यस्त रहे कर्मों में
तद्यपि वह कुछ भी ना करता
२०
चित्त रखे जो सदा निरोधित
त्याग परिग्रह आशा विरहित
मान कर्म करता शरीर से
पाप दोष ना होता संचित
२१
संतुष्ट सहज मिले उसी में
द्वेष रहित द्वन्द्वों से विरहित
रहे यश-अयश में समतामय
करे सब कर्म बंधन विरहित
२२
मुक्त रहे निःसंग हो सदा
घुल जाते हैं सर्व कर्म जब
चित्त ज्ञान में संलग्न सदा
यज्ञ मान कर करे कर्म सब
२३
अर्रपण भी जो ब्रह्म मानता
ब्रह्म अग्नि आहुति में भाता
सर्व कर्म में ब्ह्म देखता
ब्रह्म पहुँचकर ब्रह्म समाता
२४
देव आराधना ही माने
कुछ योगी यज्ञ इसे जाने
और कई योगी यज्ञ करें
ब्रह्म अग्नि में अर्पित मानें
२५
श्रोत्र आदि सर्व इन्द्रियों को
कुछ संयम ज्वाला में दहते
अथवा शब्द आदि विषयों को
इन्द्रियाग्नि में अर्पित करते
२६
दूजे प्राण अपान क्रिया को
सर्व इन्द्रियों के करेमों को
ज्ञान-दीप से दीपित संयम
रूपी ज्वाला में ही दहते
२७
कुछ अपना धन अर्पण करते
योग तपस्या अर्पण करते
अनेक घोर प्रतिज्ञाकारी ज्ञा
न अध्ययन अर्पण करते
२८
अपान में प्राण यज्ञ करते
प्राणक्रिया में आपान दहते
प्राणापान प्रक्रमण संयत
रखते वहीं परायण रहते
२९
और अन्य नियमित आहारी
प्राण में प्राण अर्पण करते
ऐसे सभी यज्ञविद ज्ञानी
यज्ञों से पाप-दहन करते
३०
यज्ञअवशिष्ट अमृत माने
योगी ब्रह्म सनातन पहुँचे
यज्ञ ना करे जगती हारे
कैसे वह परमधाम पहुँचे
३२
ऐसे विविध यज्ञ बहुतेरे
ब्रह्म-समक्ष सर्व हैं प्रसरित
कर्म सृष्ट जानो इनको तुम
करे ज्ञान यह बंधन विरहित
३२
द्रव्य यज्ञ से अहो परंतप
यज्ञ ज्ञान का उत्तम मानो
हे पार्थ सभी कर्म ज्ञान में
पूर्ण रहें परिसमाप्त जानो
३३
जिज्ञासु बनो विनम्रता से
सेवा भाव रखो तुम मन में
तभी मिलेंगे हितोपदेशक
सर्व-तत्व-ज्ञानी गुरुजन में
३४
ऐसा ज्ञान मिले हे पाण्डव
मुक्त मोहसे हो जाओगे
इसी ज्ञान से जगत स्वतः में
तथा देख मुझमें पाओगे
३६
अति पापी भी हो तुम यद्यपि
पाप बुद्धि को हर पाओगे
ज्ञान रूप इस नौका से तुम
पापी खल-जल तर पाओगे
३६
हे अर्जुन ईंधन को ज्वाला
भस्मीभूत पूर्णतः करता
उसी प्रकार सभी कर्मों को
भस्मीभूत ज्ञानाग्नि करता
३७
ज्ञान समान मनुष्य लोक में
पावक और नही कहलाता
योगसिद्ध भी यथाकाल में
अन्तरभूत यह ज्ञान पाता
३८
श्रद्धालु संयमी जो आता
तत्पर ज्ञान उसी को भाता
ज्ञान मिले तब ऐसा ज्ञाता
परम शान्ति को तुरंत पाता
३९
श्रद्धाहीन तथा अज्ञानी
संशयवादी विनष्ट होता
सुख से विरहित यह संदेही
लोक-परलोक दोनों खोता
४०
कर्मसंन्यास योगी धरता
ज्ञान से सर्व संशय हरता
रहे धनन्जय आत्मवन्त वह
करता परन्तु बंधन हरता
४१
ज्ञान शस्त्र तलवार मानकर
अज्ञान व संदेह काटकर
योग में सदा हो शरणांगत
जागो उठो उठो हे भारत
४२